3 दिसंबर की सर्द रात,साल 1984। भोपाल के लोग रोज की तरह अपने-अपने घरों में सो रहे थे। लेकिन शहर के एक हिस्से में सब कुछ रोज की तरह नहीं था। वो जगह थी,यूनियन कार्बाइड़ कैमिकल प्लांट। प्लांट के टैंक नं 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस में पानी मिलना शुरु हो चुका था । पानी और गैस के मिलने से रासायनिक क्रियाएं हुईं। जिससे टैंक में दबाव बढ़ता गया। अधिक दबाव के कारण टैंक से गैस रिसने लगी और ये जहर हवा में फैल गया।
हवा का बहाव शहर की ओर होने के कारण गैस तेजी से शहर में जहर घोलने लगी। देखते ही देखते लोग घरो से बाहर भागने लगे। चारो तरफ एक जैसी ही समस्याएं थीं। आंखों के सामने अंधेरा छाना,सर चकराना,आंखों में जलन होना,सांस लेने में तकलीफ होना तो किसी की आंखों से पीला-पीला मवाद बह रहा था। इंसानों के साथ-साथ इससे जानवर भी प्रभावित थे। भोपाल के बड़े अस्पताल हमीदिया में पहले एक-दो मरीज इस तरह की समस्या लेकर आए। लेकिन फिर अचानक ऐसे मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। रात के वक्त एमरजेंसी वार्ड़ में मौजूद ड़ॅाक्टर्स इस बीमारी को नहीं समझ पाए। उन्होनें लोगों की आंखों में ड्रॅाप डालकर और पानी की पट्टी बांधने की सलाह दी।
शासन-प्रशासन लगातार प्लांट के अधिकारियों से गैस के बारे में पूछ रहा था। लेकिन अधिकारियों नें लापरवाही दिखाई। लगातार झूठ बोलते रहे और गैस के जहरीले होने की खबर छुपाई। इससे समस्या और बढ़ गई। सबसे ज्यादा प्रभाव यूनियन कार्बाइड़ के प्लांट के आस-पास की झुग्गी झोपड़ियों पर पड़ा। उस रात प्लांट के अर्लाम सिस्टम ने काम नहीं किया। इस कारण सैकड़ो लोग सोते-सोते ही हमेशा के लिए सो गए। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मरने वालों की संख्या तकरीबन 3787 थी जबकी 5.74 लाख लोग घायल हुए थे। सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए आंकड़े के अनुसार इसमें 15724 जानें गईं थीं। वहीं दूसरे स्रोतों में अनुमान लगाया जाता है कि मरने वालों की संख्या तकरीबन 20हजार थी।
साधन संपन्न लोग अपने वाहनों से शहर छोड़कर जाने लगे। हजारों की संख्या में लोग रेलवे स्टेशन की ओर भागे। लेकिन प्रवासी मजदूर एवं दूसरे मजबूर लोग जो अपने आपको दूसरी जगह ले जाने में असमर्थ थे,सबसे ज्यादा प्रभावित हुए। सरकार ने भी इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। हादसे का मुख्य आरोपी वारेन एंड़रसन (कंपनी का सीईओ) 6 दिसंबर 1984 को गिरफ्तार हुआ लेकिन उसे वापस अमेरिका जाने दिया गया। बाद में कोर्ट ने उसे फरार घोषित कर दिया।
रशीदा बी भोपाल गैस पीड़िता स्टेशनरी कर्मचारी संघ की अध्यक्ष हैं । वे कहती हैं कि 93 प्रतिशत आबादी की तरह उन्हें आपादा के कारण हुई बीमारियों के लिए 25 हजार रुपए का ही मुआवजा मिला है। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि गैस प्रभीवित 95 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जिन्हें कैंसर हो गया था और 97 प्रतिशत लोग घातक गुर्दों की बीमारियों से पीड़ित थे। हजारों लोगों को स्थाई रुप से शारीरिक विसंगतियां आ गईं। फेफड़ों संबंधी बीमारी,बच्चों में स्थाई विकलांगता, गर्भ में मौजूद बच्चे भी अनेक तरह की आनुवांशिक बीमारियों की चपेट में आ गए। उदाहरण के लिए गर्भ के अंदर मौजूद बच्चों को सेरेब्रल पाल्सी बीमारी (बच्चे का मानसिक विकास ठीक से न होना) हो गई। .
टैंक से कैसे हुई गैस लीक ?
यूनियन कार्बाइड़ पेस्टीसाइड़ बनाने वाला प्लांट था। 3 दिसंबर की रात प्लांट में लगभग 40 टन जहरीली मिथाइल आइसोसाइनाइट गैस मौजूद थी। दुर्घटना का सबसे बड़ा कारण मिथाइल आइसोसाइनेट टैंक में पानी का मिलना था। इससे टैंक में रासायनिक क्रिया हुई और टैंक में दूसरी गैसों के साथ भारी मात्रा में कार्बन डाईआक्साइड़ गैस बनने लगी। बढ़ती CO2 के कारण टैंक का तापमान 200 डिग्री के उपर चला गया। बढ़ते ताप के कारण दबाव भी बढ़ता चला गया। क्षमता से बाहर दबाव होने पर गैस टैंक से रिसने लगी और पूरे भोपाल में मिथाइल आइसोसाइनाइट गैस फैल गई।
(दर्पण) राजकुमार केसरवानी-
फोटो- राज कुमार केसरवानी
भोपार की यूनियन कार्बाइड़ फैक्ट्री की कमियों और लापरवाही को गिनाने वाले पहले पत्रकार थे। । 1981 में प्लांट के एक कर्मचारी (मोहम्मद अशरफ) की मौत फास्जीन के सूंघने से हो गई थी। इस हादसे के बाद से लगातार 1982 से लेकर 1984 तक प्लांट के सेफ्टी स्टैंडर्ड़ को लेकर उन्होंने आर्टिकल लिखे थे। प्लांट के अंदर की खूफिया जानकारी को केसरवानी नें वहां काम करने वाले दो कर्मचारियों की मदद से प्राप्त किया था। वे कर्मचारी थे वशीरुल्लाह और शंकर मालवीय। उन्होंने सबसे पहला आटिर्कल 'बचाइए हुजूर इस शहर को बचाइए' नाम से लिखा था। फिर 'ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा भोपाल' उसके बाद 'न समझोगे तो मिट ही जाओगे' लिखे थे।
जर्नलिस्ट होने के बावजूद उन्हें इसकी रासायनिक दोषों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। उन्होंने यूनियन कार्बाइड़ रिपोर्ट में पढ़ा था कि प्लांट में इस्तेमाल होने वाली मिथाइल आइसोसाइनाइट टूटकर फास्जीन गैस बनाती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में एक आर्टिकल में पढ़ा था कि जर्मन के गैस चैंबर में इसी गैस का प्रयोग लोगों को मारने के लिए किया गया था। इस जानकारी के आधार पर ही केसरवानी ने अपनी जांच-पड़ताल शुरु की थी। 2021 में कोविड़ पेंड़ेमिक के दौरान उनकी मौत हो गई थी।
मसीहा) गुलाम दस्तगीर-
फोटो- गुलाम दस्तगीर
भोपाल रेलवे स्टेशन के तत्कालीन डिप्टी स्टेशन सुपरीटेंडेंट गुलाम दस्तगीर ने उस रात कई लोगों की जान बचाने में मदद की थी। इन्होंने ही उस रात गोरखपुर एक्सप्रेस को समय से पहले जाने का आदेश दिया था। इनकी इस समझदारी के कारण ही ट्रेन में सवार हजारों यात्रियों की जान बची थी। हालांकि सबको बचाते-बचाते वे खुद अपनी जान नहीं बचा पाए थे। पहले उन्हें मृत घोषित कर दिया गया था । लेकिन मुर्दाघर में कुछ घंटों के बाद वे फिर से उठ गए थे।
मददगार) मैक्स ड़ौनडेरर-
ये जर्मन टॅाक्सिकोलॅाजिस्ट (वैज्ञानिक जो जीवों के शरीर पर अलग-अलग रसायनों के प्रभावों का अध्ययन करता है।) थे। उन्होंने इससे पहले मिथाइल आइसोसाइनेट के प्रभावों का अध्ययन किया था। उन्हें मालुम था कि सोड़ियम थियोसल्फेट पीड़ितों को राहत दे सकती है। इसीलिए वे 50 हजार शीशियां सोड़ियम थियोसल्फेट की लेकर भोपाल पहुंचे थे। लेकिन उन्हें जल्द ही शहर से जाने के लिए कह दिया गया।
मददगार) गौरी शंकर -
ये उत्तरी रेलवे जोन के जीएम थे। हादसे के दौरान गौरी झांसी में जांच-पड़ताल कर रहे थे। जब उन्हें इस घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने भोपाल रेलवे स्टेशन से संपर्क किया। संपर्क न होने के कारण वे मदद के लिए भोपाल रवाना हुए। लेकिन वहां पहुंचने से पहले ही उन्हें रोक दिए गया। सरकार और रेलवे द्वारा रोकने के बावजूद उन्होंने आदेशों के नहीं माना और वे भोपाल स्टेशन पहुंच गए।
पीड़ित) सजिदा बानो-
सजदा बानो ने 1981 में अपने पति को गैस लीक हादसे में खो दिया था। 2 दिसंबर 1984 को वो अपने बच्चों के साथ गोरखपुर एक्सप्रेस से वापस भोपाल आ रही थीं। इस हादसे में उनके एक बच्चे की जान चली गई और दूसरा पूरे जीवन भर के लिए अपाहिज हो गया।
मुख्य आरोपी) वारेन एंड़रसन-
फोटो- वारेन एंड़रसन
भोपाल गैस त्रासदी के समय यूनियन कार्बाइड़ का अध्यक्ष और सीईओ था। हादसे के बाद एंड़रसन अपने सहयोगियों के साथ घटना का जायजा लेने इंड़ियन एयरलाइंस के विमान से भोपाल गया था। तत्कालीन एसपी स्वराज पुरी और डीएम मोती सिंह उसे यूनियन कार्बाइड़ के रेस्ट हाउस लेकर गये। जहां उसे गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन उसे सरकारी विमान से पहले दिल्ली लाए और फिर अमेरिका की फ्लाइट में बिठा दिया गया ।
जाने से पहले एंड़रसन से 25 हजार रुपए का बाॅण्ड और कुछ जरुरी कागज़ो पर दस्तख़त कराए गए। बाॅण्ड में एंड़रसन नें ट्रायल के दौरान कोर्ट में आने की बात कही थी। लेकिन वो कभी भारत वापस नहीं लौटा। सूत्रों के मुताबिक कहा जाता है कि एंड़रसन को भारत से बाहर भेजने में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और राजीव गांधी का हाथ था। बाद में 29 सितंबर 2014 को फ्लोरिड़ा के एक नर्सिंग होम में एंड़रसन की मौत हो गई । घटना के इतने सालों बाद तक इस बात का पता नहीं चल पाया है कि एंड़रसन को भारत से भगाने में किसका हाथ था।
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भोपाल गैस त्रासदी पर बना सिनेमा
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द रेलवे मैंन, भोपाल गैस त्रासदी के हीरो
( the railway man webseries review)
"सबको बचा नहीं पाया" कहते-कहते स्टेशन मास्टर कॉन्स्टेबल की गोद में दम तोड़ देते हैं। ऐसी ही चिंता एक पत्रकार को दिए इंटरव्यू में लोकोपायलट को भी है. "ये मैरा शहर है। मेरी बस्ती है। कुछ हुआ तो लोग मेरे मरेंगे।"
क्या कहती है कहानी
ये बोल 'द रेलवे मैन'बेव सीरीज के हैं। सीरीज की कहानी 1984 में हुए भोपाल गैस कांड़ के इर्द-गिर्द बुनी गई है। इसमें उस रात अपनी जान पर खेलकर लोगों की जान बचाने वाले हीरोज़ की कहानी को हाईलाइट करके दिखाया गया है। क्योंकि अब तक भोपाली, भोपाल एक्स्प्रेस, भोपाल अ प्रेयर फॉर रेन और वन नाइट इन भोपाल जैसी फ़िल्में बनी थीं. इनमे गैस कैसे लीक हुई, लोगों पर क्या प्रभाव पड़े, क्या-क्या समस्याएं हुईं, जैसी तमाम बातों का जिक्र किया गया था.
कलाकारों की कलाकारी और असल पहचान
लोकोपायलट बने इमाद रियाज (बाबिल खान) अपनी असल पहचान छोडकर पक्के भोपाली लगते हैं. स्टेशन मास्टर बने इफ्तेकार सिद्दकी (के के मेनन) को फूलती साँसों के साथ दौड़ते-भागते लोगों की मदद करते देख दर्शक भी उनके साथ छटपटाने को मजबूर हो जाते हैं.
कांस्टेबल के जरिए राइटर-डायरेक्टर जो दिखाना-सुनाना चाहते थे दिव्येंदु शर्मा ने हूबहू अपने आपको पेश किया है. पत्रकार बने जगमोहन कुमावत (सन्नी हिंदुजा) को बड़ी गंभीरता के साथ अपने प्रोफेशन और लोगों के प्रति चिंतित देख सकते है. रेलवे के जी एम बने रति पांडे (माधवन) कुछ ही समय के लिए देर से आकर भी कहानी में जान फूंकते हैं. रघुबीर यादव और दिव्येंदु भट्टाचार्य भी असरदार भूमिका में दिखते हैं.
निर्देशन, लेखन और तकनीकी बात
यह सच्ची घटना पर आधारित थ्रिलर ड्रामा है. इसको YRF एंटरटेनमेंट के बैनर तले शिव रवैल के निर्देशन में बनाया गया है. वहीं आयुष गुप्ता ने बड़ी सफाई से गैस त्रासदी के हीरोज़ को कागज पर उतारा है. रेलवे स्टेशन का वातावरण बनाने में भी काफी हद तक सफल हुए हैं.
प्लस-माइनस
छोटे-छोटे मगर बड़े असरदार डायलॉग हैं. ऐक्टिंग के जरिए दमघोंटू माहौल को बड़े अच्छे से दिखाया है. लेकिन दमघोंटू माहौल का असर कुछ लोगों( हीरोज़) पर नहीं होना बड़ा अचरज पैदा करता है. 1984 की असल दुनिया को सीरीज में हूबहू दिखाने में चूक भी हुई है. क्योंकि वातावरण उतना प्रभावशाली नजर नहीं आता है. दो कैमियो से कहानी बेहतर तो हुई है। लेकिन ट्रेलर में उनकी झलक से सस्पेंश का मजा कम भी हुआ है। 1984 के सिख दंगों का जिक्र असरदार है. लेकिन 1984 के समय को थोड़ा और दिखाया जा सकता था।
देखनी चाहिए या नहीं
बॉलीवुड में हिस्टोरिकल ड्रामा कम ही हैं. उसमे भी इतने असरदार तरीके से अपनी बात कहने वाले और भी कम हैं. बाकी बाबिल और मेनन के शानदार अभिनय और उस रात के हीरोज को जानने के लिए भी देख सकते हैं.
भोपाली (2011)
वैन मेक्समिलियन कार्लसन द्वारा संचालित ड़ाक्यूमेंटरी वेस्ड़ फिल्म है। इसमें हादसे में बच गए लोग अपनी आप बीती सुनाते हैं कि कैसे बचकर भी उनको पूरी जिंदगी मर-मर-कर जीना पड़ा। फिल्म में कभी न खत्म होने वाली लड़ाई को दिखाया है कि कैसे न्याय के लिए त्रासदी के इतने सालों बाद भी ये लोग लड़ाई लड़ रहे हैं।
भोपाल एक्सप्रेस (1999)
नवविवाहित जोड़े की आपबीती को दिखाया गया है। यूसीआईएल में काम करने वाला यह पति इस हादसे से शहर में पड़ने वाले प्रभावों को बताता है। साथ ही बताता है कि कैसे फैक्ट्री के अधिकारियों ने इस घटना को नजरअंदाज किया। अधिकारियों ने अलार्म सिस्टम को भी समय रहते चालू नहीं किया । और तो और इस बात से लगातार इंकार करते रहे कि यह गैस जहरीली है।
भोपाल ए प्रेयर फार रेन (2014)
इस फिल्म में घटना की रात को विस्तार से दर्शाया गया है। दुर्घटना की रात की लापरवाहियों और सुरक्षा की खराब व्यवस्था को दिखाया गया है। प्रेयर फार रेन के दो अर्थ हैं। पहली प्रेयर प्लांट के वर्कर के द्वारा है ताकि बारिश हो और किसान पेस्टीसाइड़ खरीदें। दूसरी प्रेयर गैस पीड़ितों द्वारा है ताकि बारिश के पानी से अपने चेहरे को धुल सकें।
वन नाइट इन भोपाल(2004)
इस ड़ाक्यूमेंटरी वेस्ड़ फिल्म में पीड़ितों की आपबीती दिखाई गई है । फिल्म में लोगों के फैक्ट्री से आश लगाए दिखाया गया है कि फैक्ट्री से उन्हें नौकरी मिलेगी। लेकिन फिल्म के दूसरे हिस्से में उस रात की भयानक तस्वीरें पेश की गईं हैं।
1 Comments
बढ़िया लिखा है 🌼
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