Ticker

6/recent/ticker-posts

दो फाड़ हो चुके हिन्दुस्तान की लाहौरी दुनिया से रूबरू कराता नाटक

तालियों की गड़गड़ाहट इस बार सबसे तेज थी। पूरा थिएटर गड़-गड़ की आवाजों से गूंज रहा था। बाजू में बैठीं पंजाबी दादियों की तालियों की आवाज इस बार पहले की हर आवाज से अधिक ऊर्जा वाली महसूस हो रही थी। मैं भी पीछे मुड़कर उस फफकती रुंदी आवाज में अपने पिता की दर्द भरी आपबीती बयां करते उस बूढ़े शख्स को देख रहा था, जो विभाजन की त्रासदी को भरे थिएटर में बयां कर रहे थे।

  
रतन जौहरी के घर का दृश्य



बीती रात मैंने भी एक नाटक देखा। नाम था, जिस लाहौर नइ देख्या,ओ जम्याइ नइ। इसका मंचन अस्मिता थिएटर के बैनर तले हो रहा था जिसका निर्देशन अरविंद गौर कर रहे थे। मैं अगर नाटक के शुरूआती हिस्से की बात करूं तो ये रौंगटे खड़े करने वाला एहसास दे रहे थे। मेरी धड़कने तेज हो चली थीं और आंखों में हल्की नमी आ गई थी, क्योंकि मैं अपने सामने एक बेकाबू भीड़ को देख रहा था। भीड़ जो नारों से वहां के माहौल में डर और हिंसा की चिनगारियां घोल रही थी। 


दिल्ली जाने के लिए स्टेशन पर बैठीं रतन जौहरी की मां 

नाटक की बात करें तो इसमें हिन्दुस्तान के दो फाड़ होने के बाद के लाहौर की कथा थी। जहां लखनऊ से पलायन करके गए मुस्लिम परिवार का संयोगभरा मिलन बूढ़ी हिन्दू महिला से होता दिखाया गया था। फिर लगातार सांप्रदायिक ताकतों से पैदा हुए तनावों के बीच मानवता को बचाए रखने वालों की आवाजाही होती रही। शुरू में शुरू हुए हिंसक नारों के साथ ही धीरे-धीरे म्यूजिक धीमा हुआ और फिर एक-एक कर लाइटों के जलने-बुझने के साथ-साथ नाटक के तमाम दृश्य सिलसिलेवार ढंग से सामने आते रहे।

मैं भी इन दृश्यों को लगातार देखता रहा। कभी अबाक तो कभी निराश होकर, कभी हंसते हुए तो कभी रोते हुए। अक्सर तालियां बजाकर कलाकारों के उर्दू और पंजाबी वाले स्पष्ट बोल को सराहा। उनके ग़ज़ल और शेर कहने के अंदाज को सराहा, क्योंकि ये एकदम बारीकी से पिरोए हुए लग रहे थे। हालांकि इस बीच मैं अपने आपको जहां-तहां पिछड़ता हुआ भी पा रहा था, खासकर पंजाबी और उर्दू शब्दावली के संदर्भ में। मगर ये रही-सही कसर कलाकारों के अभिनय से पूरी हुई जा रही थी। 




अंतिम यात्रा का दृश्य


अभिनय के मामले में रतन की मां, पहलवान और नासिर साहब का किरदार निभा रहे कलाकारों का कोई सानी नहीं ठहरता दिखा। हालांकि नाटक में पात्रों की भीड़ थी, मगर ये भीड़ अपने आप में व्यवस्थित और संतुलित थी। ये भीड़ ऊपर के तीनों किरदारों के अलावा अन्य जरूरी पात्रों को दृढ़ता प्रदान कर रही थी। हालांकि गानों के बजने और डायलॉग बोलने में कहीं-कहीं बेमेल महसूस हो रहा था मगर ये गलतियां इस प्रचंड़ अभिनय के आगे छटांक भरी लग रही थीं।

अस्मिता थिएटर के रंगमंचकर्मी, जिन्होंने नाटक प्रस्तुत किया

एक बात और, मैं मानता हूं कि थिएटर एक ऐसी कला है जहां लेखन, अभिनय और निर्देशन की परीक्षा एक साथ होती है। इस परीक्षा में आप कितना सफल हुए इसका अंदाजा तालियों की गड़गड़ाहट और मंचन के अंत में कलाकारों से मुखातिब होकर ऑडियंस द्वारा कहे गए तमाम छोटे-बड़े शब्द और वाक्य होतें हैं जिन्हें रंगमंचकर्मी सुनकर अपने पास या फेल होने का अंदाजा लगा लेता है। बूढ़े शख्स ने नाटक के अंत में भरे थिएटर में खड़े होकर कहा था कि मेरे पिता लाहौर से छह लोगों के साथ चले थे, लेकिन यहां वो अकेले ही पहुंच पाए। इसके बाद पूरे थिएटर में तालियों की लहर दोड़ गई थी।


Post a Comment

1 Comments

  1. बढ़िया लिखा हैं।✍️

    ReplyDelete