शुरूआती दिनों में हिन्दी की किताब में पढ़ी और रटी गई एक लाइन जो आज भी दिलो-दिमाग में बसी हुई है। अब साहित्य के संसार में जब भी कदम रखता हूं तो वो लाइन रह-रहकर मन में आती-जाती रहती है। मैं अक्सर अपने द्वारा पढ़े, देखे या फिर सुने जा रहे साहित्य के हिस्से को उस लाइन से तौलता परखता हूं कि क्या इसमें आगे लिखी वही लाइन फिट बैठ रही है या नहीं। वो लाइन थी, साहित्य समाज का दर्पण है।
0 Comments