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जाने अनजाने फैली फेक न्यूज़ के दुष्परिणामों को बताती फिल्म अफवाह

               


 


                खबरें आजकल हर जगह अपनी पहुंच बना रहीं हैं. इंटरनेट और फिर सोशल मीडिया ने इस पहुंच को और भी तेज और दोगुना कर दिया है. इस पहुंचने- पहुंचाने के क्रम में कभी- कभी अनजाने में तो कभी कुछ लोग जानबूझकर अफवाहों को भी फैला देते हैं. जिसके परिणाम शायद ही कभी फायदेमंद होते हों, बाकी ज्यादातर तो नुकसानदायक ही होते हैं. इसी तरह की खबरों और उससे फैली अफवाहों से जुड़ी एक मूवी की बात आज इस आर्टिकल में हो रही है. असल में हम जिस मूवी की आगे बात करने जा रहे हैं उसका नाम भी अफवाह ही है. सीधी- सीधी बिना घुमा- फिराकर बात करूं तो कहानी में बिलकुल आज के समय की सच्चाई को दिखाया गया है कि कैसे एक खबर अफवाह बनकर समाज को बर्बाद करती है.   

 

फिल्म के क़िरदारों की असल पहचान:

               कहानी में कई किरदार हैं बिल्कुल उस भीड़ की तरह जो मॉब लिंचिंग के दौरान होते हैं. मगर फिर भी कुछ किरदार मुख्य तौर पर सामने आते हैं. इनमें निवि(भूमि पेडनेकर) जो एक पार्टी लीडर की बेटी हैं तो वहीं उनके मंगेतर विक्की बन्ना(सुमित व्यास) हैं जो गठबंधन पार्टी के नेता हैं. इन युवा नेता के आस पास तमाम चेले- चपाटे घूमते हुए नजर आते हैं जिनमे से एक चेला बन्ना जी का खासम - खास आदमी दिखाया गया है जिसका नाम चंदन सिंह (शारिब हाश्मी) है. तो वहीं आम जनता में तमाम चेहरे आते जाते रहते हैं. मगर उनमें से एक अमेरिका से लौटा हुआ शक्श भी है जो एडवरटाइजिंग प्रोफेशनल के तौर पर दिखाया जाता है जिसका नाम रहाब अहमद (नबाजुद्दीन सिद्दिकी) है. वहीं भागम भाग करते हुऐ पुलिस को भी जहां तहां दिखाया गया है जिसमे संदीप तोमर (सुमित कौल) और रिया राठौड़(टी जे भानू) के दो क़िरदारों को दिखाया गया है.

आखिर फिल्म की कहानी है क्या 

                 मूवी किसने बनाई, कितने में बनी, किसने लिखी इन तमाम बातों से पहले थोड़ा कहानी को और जानकर समझ ले कि मूवी देखनी चाहिए या नहीं. बन्ना और नीवी के पिता की पार्टी के बीच गठबंधन होता है. इसमे न केवल पार्टियां जुड़ती हैं बल्की बन्ना और नीवि का रिश्ता भी जुड़ता है. मगर निवि देखती है कि बन्ना राजनीति में अपने रास्तों से किसी भी तरीके से आगे बढ़ना चाहता है. लेकीन निवी के अपने नैतिक मूल्य हैं, जो बन्ना को इस तरह आगे बढने से उसे रोकते है. मगर बात बनने के बजाय बिगड़ती देख वो बन्ना को छोड़ना चुनती है और घर से भाग जाती है. फिर बाकी कहानी बस निवि को पकड़ने भर की ही है. मगर कहानी अकेली आगे नही बढ़ती बल्कि अपने साथ अनगिनत दिखने में छोटी मगर अपने आप में विस्तार समेटे हुए छोटी छोटी कहानियों को लेकर आगे बढ़ती हैं.

                  इन कहानियों में आप आज के भारत की उन तमाम समस्याओं को देखेंगे जो आज के नए भारत में खतरनाक रूप धारण किए हुए हैं. मोटे तौर पर समझ लीजिए कि ये सारी समस्याएं राजनीति की ही उपज दिखाईं गईं हैं. यहां राजनीति के पुराने पैंतरों  के बजाय नए नए तरीके से बन्ना जैसे नेता अपने हित साधते दिखेंगे. झूठी अफवाह फैलाना, हिंदू मुस्लिम दंगे कराना, लव जिहाद का झूठा मुद्दा फैलाना , फेक न्यूज़ फैलाने वाला गिरोह, पुलिस तंत्र में फैलीं अनगिनत समस्यायों को सामने लाना ये सब आपको देखने को मिलेगा. इन्हीं राजनीतिक पैतरों में मासूम और बेगुनाह लोगों को अपने ही पैतृक जमीन पर बुरी तरह उलझते हुए दिखाया गया है. समस्या तब और भी विकराल रुप धारण करती है जब रहाब जैसा सरल- सुलझे- स्वभाव का व्यक्ति भी उसमें उलझते हुए दिखाया गया है. 


फिल्म के प्लस- माइनस प्वाइंट्स 

             • किरदारों के अभिनय की बात करूं तो आपको नवाज जैसे बड़े अभिनेता का अभिनय तो दिखेगा ही. मगर फिल्म को एकदम सटीक तरीके से लोगों तक पहुंचाने में दूसरे साथी किरादरों का भी बड़ा योगदान रहा. परदे पर जब आप भूमि को चीखते चिल्लाते, रोते बिलखते, भागते दौड़ते देखेंगे तो आप स्वाभाविक रूप से उनसे जुडाव महसूस करेगें. वहीं चंदन सिंह के किरदार में शारिब आपको एकदम सटीक अभिनय करते दिखेंगे. पार्टी के यूवा नेता के तौर पर सुमित व्यास और पुलिस कॉन्स्टेबल के रूप में टी जे भानू फिल्म में जान फूंकते नजर आएंगे. मगर कुछ किरदारों के अभिनय को कम समय मिला जैसे कि टी जे भानू का किरदार. 

             • कम समय में ज्यादा मुद्दों को दिखाने के कारण मूवी तेज गति से आगे बढती हुई आपको कभी कभी कम बांध पाती है. हालांकि भटकाव ज्यादा नही है. लेकीन बहुत कुछ दिखाने के चक्कर में सभी मुद्दों को पर्याप्त रूप से समय नही मिल पाया है; जिस कारण उठाए गए मुद्दों को गहराई नहीं मिल पाई है. कुछ समय बढ़ाकर इसको विस्तार दिया जा सकता था.

             • पूरी कहानी वास्तविक सी प्रतीत हो रही थी. लेकिन अंत में एकदम से सबकुछ अच्छा दिखाकर सच्चाई को आदर्श रूप में ढाल दिया. हालांकि इसका कारण लेखक द्वारा एक उम्मीद छोड़ना हो सकता है. कि समाज में अब भी अच्छाई और उसको पालने पोषने वाले अच्छे लोग बचे हुए हैं. और ऐसा आप पूरी फिल्म और अपने आस पास के जीवन में देख भी सकते हैं. 

             • महलों में शानदार जश्न में डूबा एक वर्ग तो वहीं जान बचाकर दौड़ता - भागता दूसरा वर्ग, फेक न्यूज़ फैलाता एक तबका वहीं फेक न्यूज़ से जूझता दूसरा तबका, राजनीति में नैतिकता को बचाए रखते कुछ लोग तो वहीं राजनीति को और भी दूषित करते हुऐ वर्गों को बखूभी दिखाया गया है. 


फिल्म देखनी चाहिए या नहीं

              फेक न्यूज़ और उसके मायाजाल की तकनीकी समझ तो नही दिखाई है. मगर राजनीतिक हथकंडों में पड़कर फेक न्यूज़ कितनी भयावह हो सकती है, ये इसमें बखूभी दिखाया है. इसीलिए अगर आप तकनीकी समझ बढ़ाने आएंगे तो आपको निराशा हो सकती है. वहीं अगर आप अपने समाज की जाति - धर्म- समुदाय पर इसके दुष्परिणामो की बेसिक समझ से पैदा हुई जागरूकता चाहते हैं तो जरूर देख सकते हैं. बाकि इस समय ना केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में फेक न्यूज़ जिस तरह लोगों को भटकाकर क्राइम की ओर बढ़ावा दे रही है, उससे बचने की सीख भी ले सकते हैं. 

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